II "कौलान्तक पीठ हिमालय स्थित परम पावन अलौकिक दिव्य महारहस्य पीठ" II  


  II ॐ महाकालाय विकर्तनाय मायाधराय नमो नम: II
 ब्रह्म महूरत के मद्धम अन्धकार में हिमालय दर्शन    
 रहस्यमय पवित्र प्रभात दर्शनीय देवात्मा हिमालय  
हिमालय जिसका भेद कोई न जान सका....कोई उसे पर्वत कहता....तो कोई देवस्थली....किसी के लिए वो सुन्दर प्राकृतिक सौंदर्य का पर्याय है तो किसी के लिए देवात्मा.....प्राचीन पांडुलिपियों और दंतकथाओं के अनुसार जम्बू द्वीप थोड़े से मार्ग को छोड़ कर लगभग चारों और से समुद्र से घिरा था....पृथ्वी पर तब तीन ही द्वीप हुआ करते थे जम्बू शाल्मली और प्लक्ष.......इन्ही द्वीपों में मानव जाती को पृथ्वी पर पलने बढ़ने के लिए आदि ब्रह्मा जी के आदेश पर ब्रह्मा जी ने मनु और शत रूपा को भेजा.....और उनके द्वारा सृष्टि में पृथ्वी लोक पर मानवो का संसार बस गया....ये भी वर्णन आता है की पृथ्वी पर एक नहीं पांच मनु उतारे गए थे......उनके बीच ही मानव जाति पृथ्वी पर बसनी शुरू हुई....लेकिन तब माता पृथ्वी  कुँवारी थी....एक मनु की सब संताने पृथ्वी पर जी नहीं पायी.......और उसे नष्ट मनु की संज्ञा दी गयी......चार मनुओं की संताने पृथ्वी पर अब भी जीवन जी रही हैं.....इन मनुओं ने स्वर्ग से ले कर सात लोको का ज्ञान मनुष्य को दिया......और ब्रम्हा जी से सदा जुड़े रहने को कहा....
 परम पावन हिमालय पर एक दिव्य मनोरम प्रभात  
 ऋषियों मुनियों की प्रिय साधना भूमि कौलान्तक पीठ  
क्योंकि पृथ्वी पर ब्रह्मा जी मानवो का भविष्य तय करेंगे ये कहा गया....मानव जाती देवताओं की पूजा और कृपा से पृथ्वी पर फली फूली....अग्नि सोम, आर्यमा, सावित्री, गायत्री, सूर्य, तेज, ध्यावा, इन्द्र, यम,सविता, रूद्र आदि की उपासना ने मानव जाति को परम बुद्धिमान बना दिया...और मानवों ने दुर्गा,शिव,विष्णु,गणपति,गुरु की पूजा शुरू की....कहते हैं की मानव खोजता चला गया देवताओं के रहस्य...और उसने स्वयं को देवता बना देने की बिधि भी खोज ली....और ऋषि मुनि देवता हो गए......सप्त ऋषि तो पृथ्वी छोड़ कर आकाश में रहने चले गए......किसी ऐसे लोक में जिसे सप्त ऋषि मंडल कहा जाता है......मानवों ने जब पृथ्वी पर पाप बढा दिए तो प्रकृति का संतुलन ख़राब होने लगा.....माता पृथ्वी बीमार हो गयी.....और उसने अपनी रक्षा के लिए पृथ्वी पर रहने वाले ऋषि मुनियों से गुहार लगायी.......तब सप्तमात्रिका नाम के ऋषि ने सभी ऋषियों से आग्रह किया की आकाश से देवात्मा हिमालय को पृथ्वी पर लाया जाए......
 श्वेत वर्ण धारी सत्यस्वरूप शिवस्थली हिमालय  
 धुंध के आवरण में हिमालय की मनोरम शोभा  
सभी देवताओं और ऋषि मुनियों के प्रयासों के कारण आकाश से हिमालय पृथ्वी पर उतरने लगे......तो उनको सागर के भीतर बैठने को कहा गया.....पृथ्वी ने अपने आपको फिर से व्यवस्थित किया और इस तरह पृथ्वी सातो द्वीपों में भी बंट चुकी थी और पृथ्वी पर स्थित हो गए देवात्मा हिमालय.......हिमालय इतना सुन्दर था की करोड़ों देवी देवता हिमालय पर रहने के लिए उतर गए......यहीं से सभी देवता पृथ्वी पर फैल गए....इससे पहले देवता आकाशों में रहते थे.....इसी लिए उनको खुश करने के लिए आग से सोम को जला कर आसमान में भेजा जाता था....लेकिन पृथ्वी पर आने से उनकी मानव रूप में मूर्ति बना कर पूजा शुरू हुई.....और उनके लिए घर बनाये गए जिनको देवालय कहा जाता है.....इस हिमालय पर्वत के अंशभूत सहयोगी भी पर्वतो के रूप में पृथ्वी के अनेक भागों में प्रकट हो गए....इसलिय पृथ्वी पर स्थित सभी पर्वतों को पवित्र ही माना जाता है
 हिमालय प्रवेश का एक पवित्र द्वार सिद्ध भूमि  
 कौलान्तक पीठ जहाँ सदा परमहंस विचरते हैं  
इस तरह पृथ्वी को संकट से उबारा गया.....तबसे ले कर अब तक कई मन्वंतर बीत चुके हैं....कई मनु पैदा हुए और चले गए.....अब जम्बू द्वीप बदल चुका था.....ऋषि मुनियों और देवी देवता हिमालय पर रहने लगे और वहीँ से पूरे जम्बू द्वीप का धर्म कार्य देखने लगे.....वे देवताओं के साथ यात्राओं पर निकल जाते.....प्रजा जन और राजा महाराजा देवताओं और ऋषि मुनियों की सेवा करते.......उनके रहने के लिए स्थान स्थान पर देवालय बनाये जाने लगे.....जब धर्म कार्य को हिमालय से संचालित करना मुश्किल हो गया तो सब ऋषि मुनियों ने सकल जम्बू द्वीप पर पञ्च पीठो का निर्माण किया.....हिमालय को जो की शायद बर्तमान रशिया नाम के देश से शुरू होता है और बर्तमान भारत नाम के देश के पूर्वी भाग में मयन्मार अथवा वर्मा नाम के देश पर जा कर समाप्त होता है.......को पहली पीठ के रूप में स्थापित किया......इसी पीठ को नाम दिया गया.......कौलान्तक पीठ......
 जिसके हर एक कण में समाहित है पवित्रता  
 जोगिनी शक्तियों की आकर्षक सुरम्य निवास स्थली  
दूसरी पीठ.....जल के भीतर डूबी हुई थी और टापू के रूप में प्रकट हुई थी इस लिए पीठ का नाम रखा गया जालंधर पीठ.......इसी पीठ के नाम पर राक्षसों ने अपने एक पुत्र का नाम जालंधर रखा था.....इसी तरह क्रमशः कूर्म पीठ.......बाराह पीठ और श्री पीठ नाम की पांच पीठो को स्थापित किया गया.....इन्ही पाँचों में से सबसे बड़ी पीठ है हिमालय की रहस्य पीठ कौलान्तक पीठ......
 जहाँ सब ओर बहती है मीठे जल की धारा
 देवात्मा हिमालय का परम पवित्र शीतल जल  
कौलान्तक पीठ जिसकी सुन्दरता किसी को भी मोह ले......देवता जहाँ रहते हैं.....ऋषि मुनियों के प्राण जिस धरा के लिए तरसते रहते हैं.....स्वर्ग के सामान जो अति सुन्दर धरती है......बिबिध सौन्दर्य......बन प्रदेश....मीठी नदियाँ....ऊँचे झरने....मद्धम सूर्य....शीतल मंद पवन......ऊँचे हिम शिखर.......बास्तव में जिसे देख कर लगता है की पांडुलिपियों में दर्ज कथाएं.......सौ प्रतिशत सच हैं.......महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के प्राण जहाँ बसते हैं......वो कौलान्तक पीठ सहस्त्रों रत्नों से भी सुन्दर है.......उसकी मिटटी के कण कण में........पवित्रता है.....शांति है.......जो अपने मुखमंडल को बादलों की चादर से सदा ही बंद रखने का प्रयास करता है.....नयी दुल्हन के श्रृंगार से कई गुना श्रृंगारित महाहिमालय कौलान्तक पीठ अतुलनीय है.....
 दिव्य पीठ कौलान्तक पीठ का शुभ दर्शन  
 हल्की बारिश में धुंध के मध्य शांत हिमालय  
जिस जिस को इस धरा पर साधना का मौका मिला...मानो उसने पृथ्वी पर अब सब कुछ पा लिया.....इसकी दिव्य सुगन्धित वायु.....जर्जर शरीर में भी अमृत का संचार कर देती है...जिसके झरनों में स्नान से पाप रहित हो मानव परम मुक्त अवस्था में पहुच जाता है......और जिस धरा पर छोटे से छोटा साधक भी साधना की आंच में तप कर परमहंस बन विचरण करता है.....इस दिव्य माणिक्य कांचन स्वरूपी कौलान्तक पीठ धरा को नमन है......महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी जिस धरा की स्तुति में कहते हैं की "तू विद्युत् धारिणी....चन्द्र शरीरा.....प्रेम प्लावित पुण्य धरा.....ममतामयी प्राण दायिनी....कौतुक कारिणी.....दिव्य धरा" परम पावन पवित्र कौलान्तक पीठ को कई नामो से जाना जाता है....जैसे कौलान्तक पीठ......कुलांत पीठ.....कौलांतर पीठ.......कुलांतर पीठ....कोलान्तक पीठ......कोलांतर पीठ.....आदि आदि साथी ही हिमालय इसका जगत प्रसिद्द नाम है.......दिव्य साधक इसे महाहिमालय.....सिद्धाश्रम....ज्ञान गंज...नीखंड....हिमाचल....उत्तराखंड भी कहते हैं....इसी कारण भारत के हिमालयी क्षेत्रों के दो राज्यों के नाम हिमाचल और उत्तराखंड हैं.....कौलान्तक पीठ की प्रचलित कथा के अनुसार....कुरुकुल्ला नाम की प्राचीन महाशक्ति की दिव्य पीठ ही कौलान्तक पीठ है...कौलान्तक पीठ का प्राचीन नाम कुलांत पीठ है.....जिसका अर्थ होता है कुलों का अंत.....कुल अर्थात धार्मिक संप्रदाय....कुलान्त पीठ अर्थात जहाँ सभी धार्मिक सम्प्रदायों की विद्या का अंत हो जाता है.....हिमालय का पर्यायवाची होने के कारण भी कुलांत पीठ का अर्थ होता है कि
 दोपहर की तेज धूप में चमकता हिमालय  
 गहरी घाटियाँ जहाँ रहते हैं अनेकों सिद्ध योगी  
वो स्थान जहाँ से आगे कोई न रहता हो मानव सभ्यता का अंत....तत्कालीन समय में इतना अधिक हिमपात होता था की वास्तव में वहां से आगे कोई सभ्यता थी ही नहीं......लेकिन अब तो है....क्योंकि समय के साथ साथ मौसम बदल गया....हिमपात में भारी कमी हुई है.....मानव के अतिक्रमण ने ये सीमा भी लांघ ली.....इसे पांडुलिपियों में कुल चक्र भी कहा गया है.....जिसका अर्थ होता है.....की पृथ्वी पर जितने भी देवी देवताओं के कुलो के संप्रदाय हैं वे सब यही से शुरू होते हैं.......और यहीं समाप्त हो जायेंगे.....यही पीठ उनकी प्रमुख पीठ है......इतिहासकारों के अनुसार बर्तमान हिमाचल प्रदेश के कुल्लू नाम के स्थान पर बहने वाली विपाशा नाम की नदी जिसे बर्तमान में व्यास नदी कहा जाता है का उत्तरी पूर्वी और कुछ पश्चिमी भाग कौलान्तक पीठ कहलाता है......सिद्ध संप्रदाय की कथा के अनुसार भी....बर्तमान पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तोरा बोरा पहाड़ियों से शुरू हो कर मयंमार तक की सारी भूमि कौलान्तक पीठ ही है......जिसका उत्तर में तिब्बत के कैलाश और मानसरोवर सहित कुछ आगे के पठारों तक सीमा स्थान था.......
 उन्नत गगनचुम्बी हिमालय के विराट शिखर  
 हठयोगियों का गुप्त संसार साधकों का स्वप्न स्थल  
तंत्र मंत्र की बाम मार्गी विद्या और जादू टोने की अधिकता के कारण चीनाचारियों से पूर्व इसे कौलाचारियों की भूमि कहा जाता था....इन्ही कौलाचारियों के संपर्क में  आ कर बौद्ध धर्म की बज्रयान नाम की शाखा बनी.....जो की मूलतया कौलाचारियों का ही पंथ है......अभी तक केवल ये बात ज्ञात नहीं हो सकी है की ऋषि हिरण्यगर्भ कौन है......उनकी उत्पत्ति आदि....लेकिन इन्ही हिरण्यगर्भ ऋषि को समाधी.......और योग का प्रथम आचार्य मान कर कौलान्तक पीठ पूजता है.....इन्ही ऋषि के द्वारा पृथ्वी पर योग विद्या का आगमन हुआ माना जाता है.....सबसे पहले कौलान्तक पीठ के सहस्त्रों ऋषियों ने लम्बी आयु.....स्वस्थ जीवन.....दिव्य आचरण......और कुल कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के लिए इस विद्या को अपने गुरु हिरण्यगर्भ जी से सीखा.....उन्ही के बाद योग के अन्य ऋषि जैसे पञ्च शिखाचार्य.....बार्शगन्याचार्य जैगिशव्याचार्य.....पतंजलि आदि ने उसी विद्या को आगे बढाया.......
 महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी की गुप्त गुफा  
 जहाँ महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी लगाते हैं समाधी  
हिरण्यगर्भ सिद्धांत के अनुसार कोल कुण्डलिनी चक्रों को कहा जाता है.....कुण्डलिनी शक्ति के सारे रहस्यों को जानने वाला कुल होने के कारण कौलान्तक पीठ का एक और नाम विख्यात हुआ वो था कोलांतर पीठ........यहाँ सन्दर्भ में ये भी आता है की पञ्च तंत्र चक्रों का अधिष्ठाता होने के कारण भी यही नाम कोलांतर पीठ पड़ा......तंत्र में पहले पांच चक्र प्रमुख माने जाते थे.... भैरवी चक्र सहित इन चक्रों को तंत्र में  बहुत मान्यता मिली.....और तंत्र इन्ही के कारण बदनाम भी हो गया.....तंत्र में भी कौलान्तक पीठ का नाम अग्रणी ही रहा.....तंत्र मार्ग के तीन प्रमुख कुल होते हैं....पहला काली कुल.....दूसरा मृ कुल....तीसरा श्री कुल......इनमेसे केवल दो ही कुल साधारण लोगो के लिए सधानागाम्य हैं...मृकुल को गुप्त रखा जाता है....तंत्र के इन तीनो कुलों का पूरा ज्ञान और स्थान हिमालय में ही है......कौलान्तक पीठ में ही......इसी कारण कुलों के अंतर स्वरुप कौलान्तक पीठ को कुलांतर पीठ नाम मिला....वो पीठ जो तीनो कुलो काली मृ और श्री को जानने वाली पीठ है......कलियुग में चौरास्सी सिद्धों ने कौलाचार की क्रियाओं से इस पीठ को मुक्त कर कौलाचार का अंत इसी भूमि पर किया.....इस कारण कौलान्तक पीठ को कौलान्तक पीठ का नया  वर्तमान नाम मिला.....बात यहीं समाप्त नहीं होती.....इस पीठ को कुलांतर पीठ भी कहा गया क्योंकि.....तत्कालीन समाज में.....और शायद बहुत सी जगह आज भी स्त्री को गायत्री.....योग.....दस महाविद्या.....तंत्र साधना.....वेदोच्चार करने की अनुमति नहीं थी.....और साधना की अनुमति भी नहीं थी....किसी भी गुरु से कोई कुवारी कन्या....या विवाहिता दीक्षा नहीं ले सकती थी....यदि किसी कारण लेनी ही पड़ जाए तो पिता के साथ......या पति की आज्ञा मिलने पर उनके साथ ही धर्म मार्ग की दीक्षा लेने दी जाती थी......जबकि पुरुषों पर ऐसा कोई बंधन नहीं था.....उस समय से केवल एकमात्र पीठ कौलान्तक पीठ ही ऐसा स्थान था जहाँ स्त्री को बिना किसी की अनुमति के अपनी स्वतंत्रता से दीक्षा लेने का और साधना करने का अधिकार था.....जिस कारण बहुत से लोग ये बात सह नहीं पाए और उन्होंने शत्रु भाव से ग्रसित हो कर इस परम दिव्य पावनी पीठ का नाम द्वेषवश कुलांतर पीठ रखा दिया जिसका अर्थ होता है......कुला.....अर्थात.....स्त्री......अंतर......अर्थात भेद......यानि के स्त्रियों के भेद को न मानने वाला पीठ.....
 हिमालय के ऊँचे शुष्क शिखरों का श्रृंगार बृक्ष
 पर्वत जिसकी गोद में मिलती है सम्पूर्ण सिद्धियाँ  
ये सब उस समय कौलान्तक पीठ ने किया...जबकि कहा जाता था की साधना में  औरत की परछाई पड़ जाने से अमंगल होता है.....तत्कालीन कुछ तथाकथित योगी मठाधीश कई कई फुट की दूरी से महिलाओं को दर्शन की अनुमति देते थे....विश्व के सभी धर्मो में स्थित परम्पराओं से बहुत अलग है कौलान्तक पीठ की परम्पराएँ......इसकी परम्पराएँ एवं मान्यताएं अभी तक संसार के सामने नहीं आ सकी हैं......केवल सिद्ध और कुछ एक गुप्त नाथ योगी ही इसकी जानकारी रखते हैं........अधिकाँश ज्ञान मौखिक ही दिया जाता है.....हिमाचल के जिला कुल्लू में सोलंग नाला के ऊँचे पर्वत एवं सिद्ध भूमि नामक स्थान को..........मणिकरण घाटी के पर्वतों को.....बंजार घाटी के हंसकुंड क्षेत्र के पर्वत.....धाराखरी नाम के गावं के जोगिनी गंधा पर्वत.....सैंज घाटी के खंडा धार पर्वतों को पीठ भूमि माना जाता है.....कहीं कहीं ये भी जिक्र है की भुंतर के निकट जिया को भी प्रमुख भूमि माना जाता है......
 आकाश को निहारता पवित्र हिमालय शिखर  
 जिस भूमि पर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी विचरते है  
ये केवल आंशिक विवरण है....महारिषि लोमेश को कौलान्तक पीठ का महाचिरंजीवी प्रमुख पीठाधीश्वर माना जाता है.....कुरुकुल्ला देवी की कथा के अनुसार स्वयं भगवान शिव ने कैलाश मानसरोवर के तट पर महारिषि लोमेश जी को पीठाधीश्वर नियुक्त किया....इन सबसे अलग पौराणिक कथा के अनुसार....जब माता सति का दक्ष यज्ञ में जला शरीर ले कर भगवान शिव हिमालय में विचरण कर रहे थे....तो भगवान विष्णु जी  ने अपने चक्र से माता सति का शरीर काट कर टुकड़ों में बाँट दिया...........जिस कारण 108 दिव्य महाशक्ति के अनुपम  शक्ति पीठ इस धरा पर  बने....जिनमे से केवल 51 शक्ति पीठो को प्रकट रूप में जगत हित  के कारण सामने लाया गया.....शेष गुप्त साधना हेतु रहस्य रखे गए.....कहीं कहीं इनकी संख्या 54 या 64 भी कही गयी है..........इनमेंसे ही  एक है कौलान्तक पीठ....जहाँ माता सति की जंघा गिरी थी.....
 माँ पार्वती का परम शक्ति स्थल हिमालय  
 रत्नों का जनक समस्त देवों का प्रिय हिमालय  
लेकिन स्वयं कौलान्तक पीठ में प्रचलित कथा के अनुसार चतुर्थ मन्वंतर में पृथ्वी पर पाप बहुत फैल गया था......जिससे पृथ्वी नष्ट होने लगी....तब ऋषियों ने स्वम शिव से पृथ्वी पर आ कर रहने की प्रार्थना की.....माता शक्ति और शिव ने लोक कल्याण के लिए सागर से हिमालय को उत्पन्न किया....और उस पर स्थित हो गए......यही महाहिमालय कौलान्तक पीठ कहलाता है.....पीठ शैव और शाक्त मतानुसार पूजन साधनों को अपनाता है.....इसी कौलान्तक पीठ में 33 करोड़ देवी देवता रहते थे.......जिन में से वर्तमान समय 18 करोड़ देवी देवता आज भी रह  रहे है...बाकि यहीं से पृथ्वी पर फैल गए......भारत के लगभग सभी संत सिद्ध पुरुष योगी कौलान्तक पीठ तक जरूर पहुंचे हैं.......उन्होंने अलग अलग नामो से इसका वर्णन किया है.....
 भगवान शिव की परम स्थली नीलखंड हिमालय  
 बर्फ के बीच नजर आती महायोगी जी की गुफा  
तंत्र मत कहता है की कौलान्तक पीठ के 21 द्वार हैं...जिनमे से एक द्वार उत्तरांचल में है.....एक जम्मू और कश्मीर में....एक पाकिस्तान...एक नेपाल....तीन तिब्बत....एक भूटान और बर्मा में हैं.......इनको कौलान्तक पीठ के प्रमुख नौ द्वार कहा जाता है....कौलान्तक पीठ में योगी, यति, सन्यासी, ऋषि, मुनि, अघोरी, तांत्रिक, मनीषी, भैरव, भैरावियाँ, अप्सराएँ, भूत, प्रेत, पिशाच, किन्नर, किरात, यक्ष, गंधर्व, ब्रह्म राक्षस आदि नाना प्रकार की योनियाँ स्थित हैं....व साधनाएँ करते हैं....अति संक्षेप में यही कौलान्तक पीठ है....
 हिमालय के प्राकृतिक सुगन्धित दिव्य पुष्पगण  
 कौलान्तक पीठ सत्य सनातन का अनंत प्रवाह  
कौलान्तक पीठ दिव्य साधको को पुकारता है....आओ साधना के सारे सूत्र महापुरुषों की प्रतीक्षा कर रहे हैं.....हिमालय कह रहा है की विश्व मंगल की कमाना करो....हिमालय गुनगुना रहा है कि अब  प्रेम गीत.....भक्ति गीत बाटने हैं....तुमको भी जागना है....समय बीतने से पहले.....समय पर सवार  हो कर बनना है युग पुरुष....करना है आत्मसाक्षात्कार
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदम
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